मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) द्वारा सूचना के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत
मजदूर किसान शक्ति संगठन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत करता है जो सर्वोच्च न्यायालय के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी (CPIO) बनाम सुभाष चन्द्र अग्रवाल के बीच था और जो सूचना के अधिकार की तीन प्रमुख अपील को लेकर आया था, जिसने - सूचना का अधिकार कानून का भारत के मुख्य न्यायाधीश व सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) पर लागू होता है - वाले सवाल का हल किया। फैसले ने यह भी स्पष्ट किया कि सूचना के अधिकार के तहत कुछ निश्चित जानकारी प्रदान करने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता या विश्वसनीयता नष्ट नहीं होगी।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) एक संवैधानिक न्यायालय के रूप में, सुप्रीम कोर्ट एक प्रशासनिक कार्यालय (इस मामले में अपीलकर्ता) के रूप में सुप्रीम कोर्ट से भिन्न था और सर्वसम्मति से यह घोषित किया गया था कि भारत के संविधान द्वारा स्थापित सुप्रीम कोर्ट और भारत के मुख्य न्यायाधीश एक ही सार्वजनिक प्राधिकरण का हिस्सा थे, इसलिए सामूहिक रूप से सूचना के अधिकार अधिनियम (आरटीआई अधिनियम 2005) के तहत "सार्वजनिक प्राधिकरण" के दायरे में आते थे।
यह निर्णय लेते हुए कि दस्तावेजों के सभी तीन वर्ग- “नियुक्तियों का मामला", "संपत्ति का मामला" और "अनुचित प्रभाव का मामला", वास्तव में सूचना के अधिकार के दायरे में होगा, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायिक स्वतंत्रता को अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए सुधारों के साथ नहीं देखा जाना चाहिए। फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि "न्यायिक स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं समझा जाना चाहिए कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता केवल सूचना से इनकार करके प्राप्त की जा सकती है"। वास्तव में न्यायालय ने कहा कि "किसी दिए गए मामले में स्वतंत्रता अच्छी तरह से सूचना प्रस्तुत करके पारदर्शिता की मांग कर सकती है"। यह दर्शाता है कि पारदर्शिता और स्वतंत्रता के बीच एक सह क्रियात्मक प्रभाव हो सकता है, सुप्रीम कोर्ट ने सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों को इसके दायरे में लाने का मार्ग प्रशस्त किया है, जिसमें एक संवैधानिक लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र संस्थानों के साथ-साथ पारदर्शिता के मानक भी शामिल हैं। यह कहते हुए न्यायिक स्वतंत्रता का उपयोग मनमाने व्यवहार, या गोपनीयता के लिए एक ढाल के रूप में नहीं किया जा सकता है, यह निर्णय स्वतंत्र संस्थानों की विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए उन्हें पारदर्शी बनाने का मार्ग प्रशस्त करता है, और इस तरह उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के दो मौलिक अधिकारों - सूचना का अधिकार और निजता के अधिकार के बीच नाजुक संतुलन पर कायम रहा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर दोनों के बीच कोई विवाद होता है, तो सार्वजनिक हित इनके बीच में निर्धारक तत्व होगा। न्यायालय ने कहा कि यह संतुलन सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (1) ञ के तहत अच्छी तरह से स्थापित किया गया था। इसलिए दोनों अधिकारों को सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के प्रावधानों के तहत संरक्षित किया जाएगा।
मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) का मानना है कि सूचना का अधिकार (RTI) और निजता का अधिकार (RTP) भारतीय संविधान से निकलने वाले मौलिक अधिकार हैं और राज्य का दायित्व है कि वह दोनों अधिकारों की रक्षा करे और उन्हें बढ़ावा दे। इस सवाल को सुलझाने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय का फैसला निजता पर जस्टिस एपी शाह की रिपोर्ट (2012) की सिफारिशों के अनुरूप है, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “सूचना का अधिकार अधिनियम द्वारा आवश्यक जानकारी का प्रकटीकरण निजता का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।”.
मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) का मानना है कि लोकतान्त्रिक ढांचे में नागरिक आधारित जवाबदेही की व्यवस्था बनाने के लिए पारदर्शिता की बहुत आवश्यकता है। ग्रामीण मजदूरों की एक निरंतर और नैतिक लड़ाई जो उनके सार्वजनिक कार्यों में भरे गए मस्टर रोल और वाउचर के विवरणों को जानने के अपने अधिकार के साथ शुरू हुई, जो उनको न्यूनतम मजदूरी दिए जाने का दावा करते हुए, जनहित के हर क्षेत्र में पारदर्शिता के लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा किया गया। इसने 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम और शासन की खुली व्यवस्था का ऐतिहासिक मार्ग प्रशस्त किया। आरटीआई ने अपनी स्वतंत्रता और इसकी शक्ति को कम करने के लिए लगातार सरकारों द्वारा किए गए प्रयासों के साथ एक लंबी और कठिन यात्रा की है। राशन, पेंशन, दवाइयां, शिक्षा, रोजगार जैसी बुनियादी सेवाओं के वितरण से संबंधित मुद्दों को लेकर, हर साल 40 लाख से 60 लाख आरटीआई दायर की जाती हैं; संवैधानिक नियुक्तियों, बहुत सारे अनुबंधों का किया जाना, नीतिगत निर्णयों पर विचार-विमर्श, अल्पसंख्यकों पर हमले, कई अन्य लोगों के बीच भ्रष्टाचार घोटालों ने प्रदर्शित किया कि यह अनुच्छेद 19 (1) के साथ-साथ अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) के तहत एक मौलिक अधिकार कैसे था और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) भी। इसने आम नागरिकों को सूचना का अधिकार अधिनियम का उपयोग करने में, जांच- पड़ताल करने, सवाल करने और सत्ता के मनमाने और गैर जिम्मेदाराना उपयोग को उजागर करने में अटूट विश्वास भी दिखाया है। लगभग 80 आरटीआई कार्यकर्ताओं की मौत, जो सत्ता की साथ-गाँठ को उजागर करने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल कर रहे थे, इस बात का प्रमाण है।
यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब वर्तमान सरकार सूचना आयोगों की स्वतंत्रता से समझौता करके सूचना के अधिकार को कमजोर करने का प्रयास की है। संस्थानों की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए पारदर्शिता की आवश्यकता के सिद्धांतों के विपरीत, आरटीआई कानून में संशोधन पूरी गोपनीयता के साथ किए गए थे और केंद्र सरकार की विधायी पूर्व परामर्श नीति का उल्लंघन किया गया था, जो कानूनों के मसौदों को सार्वजनिक किये जाने और परामर्श को अनिवार्य बनाता है। हाल में किये गए संशोधन के अनुसार आयोगों के कामकाज को कार्यपालिका ( मंत्रिमंडल व मंत्रिपरिषद) द्वारा नियंत्रित किये जाने और संशोधन के अनुसार जारी किए गए नियमों द्वारा सरकार ने सूचना तक पहुंच के दावों पर निर्णय लेने के लिए अंतिम प्राधिकरण के रूप में कार्य करने की उनकी क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, जो इस निर्णय ने स्पष्ट किया है कि यह भारतीय संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार है। यह संघवाद के महत्वपूर्ण मुद्दे को भी उठाता है, और वर्तमान सरकार के केंद्रीकृत और अलोकतांत्रिक निर्णय लेने का एक सतत संकेत है। दिलचस्प बात यह है कि एक अलग फैसले में उसी दिन रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड एवं अन्य (2019) सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रिब्यूनल के सदस्यों की नियुक्ति नियमों और शर्तों को इस आधार पर समाप्त कर दिया है कि कार्यपालिका ने एक स्वतंत्र निकाय के साथ हस्तक्षेप करने की अनुमति दी है, संभावित रूप से सूचना आयोगों की स्वतंत्रता को कमजोर करने के लिए सरकार के संशोधन के खिलाफ इसी तरह के निर्णय मार्ग प्रशस्त करते हैं।
मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) जनहित के मुद्दों पर इन महत्वपूर्ण आरटीआई आवेदनों को दाखिल करने और लगातार पीछा करने के लिए श्री सुभाष अग्रवाल और श्री प्रशांत भूषण को जिन्होंने एक दशक से अधिक समय तक कानून की विभिन्न अदालतों में इन पारदर्शी प्रावधानों के लिए दृढ़ और निडर होकर लड़ाई लड़ी को बधाई देता है। MKSS को उम्मीद है कि यह निर्णय अन्य सार्वजनिक प्राधिकरणों के लिए पारदर्शी तरीके से कार्य करने के लिए एक मिशाल बनेगा, ताकि स्वतंत्र संवैधानिक संस्थानों सहित सभी सार्वजनिक प्राधिकरण लोगों के प्रति जवाबदेह बनें। आरटीआई कानून लोकतांत्रिक अधिकारों की जड़ है, जो अन्य अधिकारों को प्राप्त किये जाने का मार्ग प्रशस्त करता है। MKSS लोगों के अधिकारों के लिए हमेशा प्रयास करता रहेगा, शासन के सर्वोत्तम हित और एक सहभागी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए आरटीआई कानून 2005 के दायरे में वृद्धि करता रहेगा।
साभार स्रोत - मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) की प्रेस विज्ञप्ति