Tuesday, December 17, 2019

सुप्रीम कोर्ट ने आरटीआई के दुरूपयोग को रोकने के लिए गाइडलाइन बनाने का अनुमोदन किया


सुप्रीम कोर्ट ने आरटीआई के दुरूपयोग को रोकने के लिए गाइडलाइन बनाने का अनुमोदन किया
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सुप्रीम कोर्ट ने सूचना का अधिकार अधिनियम का दुरूपयोग रोकने के लिए गाइडलाइन बनाने का अनुमोदन कर दिया है, ताकि निहित स्वार्थ वाले व्यक्ति ब्लैकमेल करने और डराने-धमकाने के लिए इस अधिनियम का सहारा न ले पाएं। मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबड़े की अध्यक्षता वाली बैंच, जिसमें न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायाधीश सूर्यकांत भी शामिल हैं, कि कुछ लोग किसी भी मुद्दे को लेकर आरटीआई ऍप्लिकेशन फाइल कर देते हैं, जबकि ऐसे लोगों का उस मुद्दे से कोइ लेना-देना नहीं होता है। कभी-कभी तो यह प्रवृति आपराधिक धमकी का रूप ले लेती है। बैंच ने कहा कि हम आरटीआई के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन गाइडलाइन की जरुरत तो है। यह एक स्वेच्छाचारी अधिकार नहीं हो सकता।



अदालत ने कहा कि इस कानून का उद्देश्य प्रशंसनीय है, लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं, जहाँ लोग इस कानून का दुरुपयोग करते हैं। मुम्बई में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिसमें आवेदकों ने कानून की प्रावधानों का दुरूपयोग कर व्यावसायिक और व्यापारिक अनुबंधों के निर्णयों से समबन्धित सूचनाएं माँगी थी। एडवोकेट प्रशांत भूषण ने एक ओर इस बात पर अपनी सहमति दिखलाई कि ऐसे प्रकरण हो सकते हैं, साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि सत्ता के गलियारों की बहुत सी निंदनीय जानकारियाँ आरटीआई के माध्यम से ही सामने आ सकी हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि चुनावी बॉन्ड्स से जुड़ा मुद्दा आरटीआई के माध्यम से ही सामने आ सका।

मुख्य न्यायाधीश बोबड़े आरटीआई कानून का दुरूपयोग रोकने के लिए इसकी गाइडलाइन जारी करने की जरुरत पर जोर देते हुए आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा कि ये आरटीआई कार्यकर्ता होने का दावा करने वाले कौन लोग हैं, क्या यह एक पेशा है?



एडिशनल सॉलिसिटर जनरल पिंकी आनंद ने कहा कि आरटीआई के गलत उपयोग का मामला गंभीर चिंता का विषय है। उन्होंने कोर्ट को सूचित किया कि 14 दिसंबर 2019 को एक सर्च कमेटी का गठन किया गया है जो केंद्रीय सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के पदों पर नियुक्ति करने के लिए उम्मीदवारों के नामों की सूची तैयार करेगी और उनके नाम सरकारी वेबसाइट पर डाले जाएंगे। कोर्ट ने इस बयान को रिकॉर्ड में लिया।

कोर्ट ने केंद्र और राज्य को सीआईसी और एसआईसी में रिक्त सभी पदों को तीन माह में भरने का समय दिया और याचिकाकर्ता अंजलि भारद्वाज और उनके वकील प्रशांत भूषण को इस बात की अनुमति प्रदान कर दी कि वे कोर्ट द्वारा 15 फरवरी 2019 को जारी पांच दिशानिर्देशों की पालना नहीं करने वाले राज्यों व् केंद्र सरकार के खिलाफ अवमानना याचिका दाखिल का सकते हैं।

(साभार स्रोत - राष्ट्रदूत, 17 दिसंबर 2019 में प्रकाशित समाचार)

Friday, November 22, 2019

मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) द्वारा सूचना के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत


मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) द्वारा सूचना के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत

मजदूर किसान शक्ति संगठन सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत करता है जो सर्वोच्च न्यायालय के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी (CPIO) बनाम सुभाष चन्द्र अग्रवाल के बीच था और जो सूचना के अधिकार की तीन प्रमुख अपील को लेकर आया था, जिसने - सूचना का अधिकार कानून का भारत के मुख्य न्यायाधीश व सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) पर लागू होता है - वाले सवाल का हल किया। फैसले ने यह भी स्पष्ट किया कि सूचना के अधिकार के तहत कुछ निश्चित जानकारी प्रदान करने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता या विश्वसनीयता नष्ट नहीं होगी।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) एक संवैधानिक न्यायालय के रूप में, सुप्रीम कोर्ट एक प्रशासनिक कार्यालय (इस मामले में अपीलकर्ता) के रूप में सुप्रीम कोर्ट से भिन्न था और सर्वसम्मति से यह घोषित किया गया था कि भारत के संविधान द्वारा स्थापित सुप्रीम कोर्ट और भारत के मुख्य न्यायाधीश एक ही सार्वजनिक प्राधिकरण का हिस्सा थे, इसलिए सामूहिक रूप से सूचना के अधिकार अधिनियम (आरटीआई अधिनियम 2005) के तहत "सार्वजनिक प्राधिकरण" के दायरे में आते थे।

यह निर्णय लेते हुए कि दस्तावेजों के सभी तीन वर्ग- “नियुक्तियों का मामला", "संपत्ति का मामला" और "अनुचित प्रभाव का मामला", वास्तव में सूचना के अधिकार के दायरे में होगा, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायिक स्वतंत्रता को अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए सुधारों के साथ नहीं देखा जाना चाहिए। फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि "न्यायिक स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं समझा जाना चाहिए कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता केवल सूचना से इनकार करके प्राप्त की जा सकती है"। वास्तव में न्यायालय ने कहा कि "किसी दिए गए मामले में स्वतंत्रता अच्छी तरह से सूचना प्रस्तुत करके पारदर्शिता की मांग कर सकती है"। यह दर्शाता है कि पारदर्शिता और स्वतंत्रता के बीच एक सह क्रियात्मक प्रभाव हो सकता है, सुप्रीम कोर्ट ने सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों को इसके दायरे में लाने का मार्ग प्रशस्त किया है, जिसमें एक संवैधानिक लोकतंत्र के लिए स्वतंत्र संस्थानों के साथ-साथ पारदर्शिता के मानक भी शामिल हैं। यह कहते हुए न्यायिक स्वतंत्रता का उपयोग मनमाने व्यवहार, या गोपनीयता के लिए एक ढाल के रूप में नहीं किया जा सकता है, यह निर्णय स्वतंत्र संस्थानों की विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए उन्हें पारदर्शी बनाने का मार्ग प्रशस्त करता है, और इस तरह उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करता है।

सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के दो मौलिक अधिकारों - सूचना का अधिकार और निजता के अधिकार के बीच नाजुक संतुलन पर कायम रहा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर दोनों के बीच कोई विवाद होता है, तो सार्वजनिक हित इनके बीच में निर्धारक तत्व होगा। न्यायालय ने कहा कि यह संतुलन सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 8 (1) ञ के तहत अच्छी तरह से स्थापित किया गया था। इसलिए दोनों अधिकारों को सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के प्रावधानों के तहत संरक्षित किया जाएगा।

मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) का मानना है कि सूचना का अधिकार (RTI) और निजता का अधिकार (RTP) भारतीय संविधान से निकलने वाले मौलिक अधिकार हैं और राज्य का दायित्व है कि वह दोनों अधिकारों की रक्षा करे और उन्हें बढ़ावा दे। इस सवाल को सुलझाने के लिए, सर्वोच्च न्यायालय का फैसला निजता पर जस्टिस एपी शाह की रिपोर्ट (2012) की सिफारिशों के अनुरूप है, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “सूचना का अधिकार अधिनियम द्वारा आवश्यक जानकारी का प्रकटीकरण निजता का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।”.

मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) का मानना है कि लोकतान्त्रिक ढांचे में नागरिक आधारित जवाबदेही की व्यवस्था बनाने के लिए पारदर्शिता की बहुत आवश्यकता है। ग्रामीण मजदूरों की एक निरंतर और नैतिक लड़ाई जो उनके सार्वजनिक कार्यों में भरे गए मस्टर रोल और वाउचर के विवरणों को जानने के अपने अधिकार के साथ शुरू हुई, जो उनको न्यूनतम मजदूरी दिए जाने का दावा करते हुए, जनहित के हर क्षेत्र में पारदर्शिता के लिए एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा किया गया। इसने 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम और शासन की खुली व्यवस्था का ऐतिहासिक मार्ग प्रशस्त किया। आरटीआई ने अपनी स्वतंत्रता और इसकी शक्ति को कम करने के लिए लगातार सरकारों द्वारा किए गए प्रयासों के साथ एक लंबी और कठिन यात्रा की है। राशन, पेंशन, दवाइयां, शिक्षा, रोजगार जैसी बुनियादी सेवाओं के वितरण से संबंधित मुद्दों को लेकर, हर साल 40 लाख से 60 लाख आरटीआई दायर की जाती हैं; संवैधानिक नियुक्तियों, बहुत सारे अनुबंधों का किया जाना, नीतिगत निर्णयों पर विचार-विमर्श, अल्पसंख्यकों पर हमले, कई अन्य लोगों के बीच भ्रष्टाचार घोटालों ने प्रदर्शित किया कि यह अनुच्छेद 19 (1) के साथ-साथ अनुच्छेद 21 (जीने का अधिकार) के तहत एक मौलिक अधिकार कैसे था और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) भी। इसने आम नागरिकों को सूचना का अधिकार अधिनियम का उपयोग करने में, जांच- पड़ताल करने, सवाल करने और सत्ता के मनमाने और गैर जिम्मेदाराना उपयोग को उजागर करने में अटूट विश्वास भी दिखाया है। लगभग 80 आरटीआई कार्यकर्ताओं की मौत, जो सत्ता की साथ-गाँठ को उजागर करने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल कर रहे थे, इस बात का प्रमाण है।

यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब वर्तमान सरकार सूचना आयोगों की स्वतंत्रता से समझौता करके सूचना के अधिकार को कमजोर करने का प्रयास की है। संस्थानों की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए पारदर्शिता की आवश्यकता के सिद्धांतों के विपरीत, आरटीआई कानून में संशोधन पूरी गोपनीयता के साथ किए गए थे और केंद्र सरकार की विधायी पूर्व परामर्श नीति का उल्लंघन किया गया था, जो कानूनों के मसौदों को सार्वजनिक किये जाने और परामर्श को अनिवार्य बनाता है। हाल में किये गए संशोधन के अनुसार आयोगों के कामकाज को कार्यपालिका ( मंत्रिमंडल व मंत्रिपरिषद) द्वारा नियंत्रित किये जाने और संशोधन के अनुसार जारी किए गए नियमों द्वारा सरकार ने सूचना तक पहुंच के दावों पर निर्णय लेने के लिए अंतिम प्राधिकरण के रूप में कार्य करने की उनकी क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, जो इस निर्णय ने स्पष्ट किया है कि यह भारतीय संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार है। यह संघवाद के महत्वपूर्ण मुद्दे को भी उठाता है, और वर्तमान सरकार के केंद्रीकृत और अलोकतांत्रिक निर्णय लेने का एक सतत संकेत है। दिलचस्प बात यह है कि एक अलग फैसले में उसी दिन रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक लिमिटेड एवं अन्य (2019) सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रिब्यूनल के सदस्यों की नियुक्ति नियमों और शर्तों को इस आधार पर समाप्त कर दिया है कि कार्यपालिका ने एक स्वतंत्र निकाय के साथ हस्तक्षेप करने की अनुमति दी है, संभावित रूप से सूचना आयोगों की स्वतंत्रता को कमजोर करने के लिए सरकार के संशोधन के खिलाफ इसी तरह के निर्णय मार्ग प्रशस्त करते हैं।

मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) जनहित के मुद्दों पर इन महत्वपूर्ण आरटीआई आवेदनों को दाखिल करने और लगातार पीछा करने के लिए श्री सुभाष अग्रवाल और श्री प्रशांत भूषण को जिन्होंने एक दशक से अधिक समय तक कानून की विभिन्न अदालतों में इन पारदर्शी प्रावधानों के लिए दृढ़ और निडर होकर लड़ाई लड़ी को बधाई देता है। MKSS को उम्मीद है कि यह निर्णय अन्य सार्वजनिक प्राधिकरणों के लिए पारदर्शी तरीके से कार्य करने के लिए एक मिशाल बनेगा, ताकि स्वतंत्र संवैधानिक संस्थानों सहित सभी सार्वजनिक प्राधिकरण लोगों के प्रति जवाबदेह बनें। आरटीआई कानून लोकतांत्रिक अधिकारों की जड़ है, जो अन्य अधिकारों को प्राप्त किये जाने का मार्ग प्रशस्त करता है। MKSS लोगों के अधिकारों के लिए हमेशा प्रयास करता रहेगा, शासन के सर्वोत्तम हित और एक सहभागी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए आरटीआई कानून 2005 के दायरे में वृद्धि करता रहेगा।

साभार स्रोत - मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) की प्रेस विज्ञप्ति

Wednesday, November 13, 2019

Offices of the Chief Justice of India and High Court Chief Justices are now under RTI


Offices of the Chief Justice of India and High Court Chief Justices are now under RTI

The Supreme Court on Wednesday, 13 November 2019, declared office of the Chief Justice of India and high court chief justices as 'public authority', making them liable to provide information to queries under the Right to Information Act, but weaved in caveats of 'judicial independence, privacy and genuine public interest' to protect judges and judiciary against witch-hunting.

- Keshav Ram Singhal

Saturday, July 27, 2019

सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक 2019 संसद में पारित


सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक 2019 संसद में पारित

लोकसभा में सोमवार दिनांक 22 जुलाई 2019 को सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक 2019 विपक्ष के विरोध के वावजूद ध्वनि मत से पारित कर दिया गया। 25 जुलाई 2019 को यह विधेयक राज्यसभा में भी पारित हो गया है। हालांकि विपक्ष की मांग थी कि इस विधेयक को सलेक्ट कमेटी को भेजा जाए, पर सरकार ने इसे माना नहीं। तृणमूल कांग्रेस के डेरैक ओ'ब्रायन ने भी इस विधेयक के लिए संशोधन प्रस्ताव रखा कि विधेयक को संवीक्षा के लिए सलेक्ट कमेटी को भेजा जाए, पर इस संशोधन प्रस्ताव के पक्ष में 75 और विपक्ष में 117 वोट पड़े, अतः यह संशोधन प्रस्ताव पारित नहीं हो सका।

इस संशोधन विधेयक के द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 13, 16 और 27 में संशोधन किया गया है। इन धाराओं के प्रावधानों का सम्बन्ध मुख्य सूचना आयुक्त और सुचना आयुक्त के कार्यकाल से सम्बंधित है, जिसके अनुसार सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अंतर्गत इनका कार्यकाल पांच वर्ष के लिए निश्चित किया गया था और इनकी नियुक्ति केंद्र और राज्यों में की जाने की व्यवस्था थी। संशोधन अधिनियम के अंतर्गत अब केंद्र सरकार तय करेगी कि इनके कार्यकाल की सीमा क्या होगी।

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में यह व्यवस्था थी कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का वेतन और पद की स्थिति को मुख्य निर्वाचन आयुक्त और चुनाव आयुक्त के समान रखा गया था, जबकि संशोधन अधिनियम के अनुसार मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का वेतन और उनकी सेवा शर्तें केंद्र सरकार तय करेगी।

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का धारा 13 और 16 के तहत केंद्रीय सूचना आयुक्तों (CIC) को चुनाव आयोग का दर्जा और राज्य सूचना आयुक्तों को प्रमुख सचिव का दर्जा दिया गया था, ताकि वे स्वतंत्र और प्रभावी तरीके से कार्य कर सकें। जाहिर है सूचना का अधिकार अधिनियम में संशोधन के बाद सूचना आयोग की स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी। विपक्षी दलों का तर्क है कि इस संशोधन विधेयक से पारदर्शिता कानून को कमजोर करेगी और सूचना आयोग की आजादी बाधित होगी। विपक्ष चाहता है कि इससे पहले कि बिल को राज्यसभा में पेश किया जाए, इस पर चर्चा की जाए और एक संसदीय समिति द्वारा इसकी छानबीन की जाए। विपक्ष का आरोप है कि केंद्र सरकार व्यक्ति-से-व्यक्ति (पर्सन-टू-पर्सन) मामले को देखते हुए उनके वेतन भत्ते, कार्यकाल और सेवा शर्तें तय करेगी। इससे सूचना का अधिकार कानून की मूल भावना से खिलवाड़ होगा।

संशोधन विधेयक लोकसभा और राज्यसभा में पारित हो गया है, अब इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा, तत्पश्चात यह अधिनियम के रूप में कानूनी रूप से लागू हो जाएगा।

- केशव राम सिंघल